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'आप' की मुश्किल बना आवाम

दिल्ली विधानसभा चुनाव के हो-हल्ले के बीच 'कांग्रेस' मेरे लिए चिंता का विषय बनी हुई है। चिंता इस बात की है कि क्या कांग्रेस का अस्तित्व खत्म हो गया है? या फिर मीडिया ने कांग्रेस को बिसरा दिया है। कांग्रेसी नेता क्या पहले से ही अपने को दिल्ली फतेह के युद्ध से बाहर कर चुके हैं।
इस चुनाव को लेकर कांग्रेस न तो गंभीर दिख रही है और ना ही मुखर। कांग्रेस की इस सुस्ती की वजह से दिल्ली चुनाव पूर्णत: आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच का बन गया है। यह चुनाव केजरी बनाम बेदी नहीं, मोदी ही है। ये तो बीजेपी भी जान ही गई है कि बेदी को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर पेश करने से उन्हें उनकी सोच के मुताबिक फायदा बिल्कुल नहीं मिला और ना ही मिलने वाला है, मोदी प्रचार ही असल सहारा है। दूसरी तरफ, आम आदमी पार्टी की मुश्किलें आने वाले दिनों में और बढ़ने वाली हैं।

विज्ञापन वार में तो केजरीवाल ने सटीक दांव-पेंच खेलकर बीजेपी का पसीना छुटा दिया था। पार्टी दिल्ली में बनिया वोट खिसकने के भय से आशंकित हो उठी थी, लेकिन फर्जी कंपनी से चंदा लेने और मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप ने 'आप' को चौतरफा घेर लिया है।
इसका असर पार्टी की छवि पर पर पड़ना लाजिमी है। चुनाव से ठीक पांच दिन पहले उभरकर आए आवाम संगठन की वैधता और मकसद पर भी सवाल खड़े किए जा सकते हैं। हो सकता है आवाम मुहरा हो और असली खिलाड़ी कोई और!  चुनाव से ठीक दो दिन पहले संगठन के आंदोलन का दावा और भरपूर मीडिया कवरेज 'आप' के लिए मुश्किलें तो खड़ा कर ही सकता है।
ललित फुलारा

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