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दिल्ली में मन नहीं लगा तो दीवार पर लिखा- मैं अब लौटकर नहीं आऊंगा, फिर उसे कर दिया एक गधे की वापसी- वरिष्ठ साहित्यकार हरिसुमन बिष्ट


प्रख्यात साहित्यकार डॉक्टर हरिसुमन बिष्ट कहते हैं ‘रॉयल्टी को लेकर लेखकों के साथ हेर-फेर करना दु:खद स्थिति है. सरकारों को इसके लिए पहल करनी चाहिए. आख़िर लेखक ही ऐसा क्यों है जो बिल्कुल उपेक्षा का शिकार है. अख़बारों से भी साहित्य गायब हो गया है. वाद-विवाद के केंद्र जहां चर्चाएं होती थी, वो भी कम हो गये हैं. इधर, लेखकों में एक तरह से निराशा का भाव जगा है. यदि सरकारों ने कॉपी राइट के नियम पर कुछ सोचा होता तो निश्चित तौर पर एक नीति बनती और उसके तहत लेखकों को कुछ मिलता.’


अच्छा रचनाकार बनना है तो अति-संवेदनशील होना पड़ेगा

वह कहते हैं ‘आज की तारीख़ में अगर आप एक अच्छे रचनाकार होना चाहते हैं, तो आपको अति-संवेदनशील होना पड़ेगा. चीज़ें और परिस्थितियां दिनों-दिन बदल रही हैं.’ असहिष्णुता के नाम पर पुस्कार लौटाने को कैसे देखते हैं? पूछने पर 65 साल के वरिष्ठ साहित्यकार हरिसुमन बिष्ट कहते हैं कि मैं इसमें स्पष्ट कहता हूं कोई भी संस्था और व्यक्ति अगर आपको सम्मानित करता है, तो सम्मान का आदर होना चाहिए. आपको तिरस्कार के लिए सम्मानित नहीं किया गया है. वह कहते हैं कि राजनीति के बिना साहित्य तो चल नहीं सकता है. कुछ लोग दाएं चलते हैं,  कुछ बाएं  लेकिन जो कहीं नहीं चलते और बीच में होते हैं, दुर्गति उनकी ही होती है.



जीवन में बांधी विष्णु प्रभाकर की सीख

साहित्य की युवा पीढ़ी की कमी की तरफ इशारा करते हुए हरिसुमन बिष्ट कहते हैं ‘युवाओं में छपास बहुत अधिक हो गई है. कोई भी युवा रचनाकार लिखता है, तो उसको रिपीट नहीं करता. विष्णु प्रभाकर (Vishnu Prabhakar ) जी ने एक दिन कहा था कि रचनाएं करना आसान है. लेकिन एक खू़बसूरत रचना बनाने के लिए मैं क्या करता हूं?

उन्होंने कहा था मैं पहले रचना को लिखता हूं. उसको रख देता हूं. थोड़ी देर बाद उसे फिर पढ़ता हूं. उसमें काटछांट कर अलग बनाता हूं और पहले वाली को फाड़ देता हूं. फिर उसे पढ़ता हूं और काटछांट कर रख देता हूं. तीसरी बार जब मैं उसे पढ़ता हूं, तो मेरे हाथ उसे फाड़ने से रुक जाते हैं. कहने का मतलब है कि इतनी मेहनत हमें रचना में करनी होती है. तभी हमें भाषा के स्तर पर और कथ्य के स्तर पर एक बढ़िया रचना मिलेगी. विष्णु प्रभाकर की यह सीख मैंने अपने जीवन में बांध ली थी.

दिल्ली में मन नहीं लगा तो दीवार पर लिख दी यह बात

हरिसुमन बिष्ट कहते हैं कि जब वह पहाड़ से दिल्ली आए तो दो-तीन साल मन नहीं लगा. पहाड़गंज में किराये के कमरे में रहते थे. किस्सा सुनाते हुए बताते हैं ‘पिता ने कहा कि मन नहीं लगता तो थोड़ा घूमा फिरा करो. मैंने कहा मुझे यहां नहीं रहना, वापस पहाड़ जाना है. आप यकीन नहीं करेंगे मैं किराये के मकान की एक दीवार पर लिखकर गया- ‘मैं अब लौटकर नहीं आऊंगा.’

पहाड़ में भी मन नहीं लगा तो दो-तीन महीने में वापस लौट आया और दीवार पर जो लिखा हुआ था, उसके ऊपर लिख दिया- ‘एक गधे की वापसी’. उस घर में मैं 35 साल तक रहा. वो तब तक ऐसा ही लिखा हुआ था. अब वो घर बिक गया है. हिम्मत नहीं होती उस घर की दीवार को अब जाकर देखने की.

पहाड़ के जीवन में हर कदम पर कठिनाई

उत्तराखंड के अल्मोड़ा में स्थित कुन्हील गांव में पैदा हुए हरिसुमन बिष्ट कहते हैं कि पहाड़ के गांवों का जीवन बहुत कठिन है और उन परिस्थितियों से मैं भी गुजरा हूं.पहाड़ देखने और सुनने में बहुत खूबसूरत हैं. हर कोई कहता है कि आप पहाड़ से हैं, तो बहुत सौभाग्यशाली हैं. और हम जानते हैं कि पहाड़ का जीवन कितना कठिन होता है?

हर कदम पर आपको कठिनाई मिलती है. पानी नहीं मिलता. चढ़ाई मिलती है. खेती बाड़ी में अनाज पैदा नहीं होता. ‘लेखन की शुरुआत कैसे हुई?’ पूछने पर बताते हैं कि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि बेहद सकारात्मक रही. गांव सांस्कृतिक रूप से समृद्ध था. दादा कुमाऊंनी के एक महत्वपूर्ण कवि थे. जिनका नाम दिवान सिंह था और उनकी रचना ‘दिवानी विनोद’ प्रसिद्ध है जो 1926 के आसपास लिखी गई थी. दादा उस दौर में पहाड़ जैसे सुदूर क्षेत्र में घर की महिलाओं को शिक्षित करने की बात कर रहे थे. घर का ही प्रभाव पड़ा और 7वीं कक्षा में अख़बार में एक निबंध लिखा, वहीं से लेखन में रुचि पैदा हुई.

साहित्य अकादमी मेरे लिए साहित्य का मंदिर

हरिसुमन बिष्ट कहते हैं ‘आज मैं इस उम्र में पहुंच गया हूं. साहित्य अकादमी मेरे लिए आज भी साहित्य का एक मंदिर है. मेरे सबसे करीबी लेखक विष्णु प्रभाकर थे. वो मोहन सिंह पैलेस का जो कॉफी हाउस है, वहां शाम को बैठा करते थे. पंकज बिष्ट, राजकुमार सैनी और भीष्म साहनी भी वहां नियमित आते थे. उस वक़्त पॉलिटिशियन भी आते थे.

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